कौन जीता, अंतर कितना रहा
452 बनाम 300—उपराष्ट्रपति चुनाव का अंतिम स्कोर यही रहा। 9 सितंबर 2025 को हुए इस मुकाबले में एनडीए उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन ने इंडिया ब्लॉक के बी. सुदर्शन रेड्डी को पहले वरीयता वोटों पर ही पीछे छोड़ दिया। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक 752 वैध पहले वरीयता वोट पड़े। इस पद्धति में जीत के लिए जरूरी कोटा कुल वैध मतों का आधा + 1 होता है, यानी करीब 377। राधाकृष्णन 452 पर थे, इसलिए उन्हें पहले ही राउंड में बढ़त मिल गई।
यह चुनाव सिंगल ट्रांसफरेबल वोट (STV) और सीक्रेट बैलेट से होता है। इसमें लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य वोट करते हैं—राज्यसभा के नामित सदस्य भी इसमें शामिल होते हैं। दल-बदल कानून (टेंथ शेड्यूल) यहां लागू नहीं होता, इसलिए क्रॉस-वोटिंग की गुंजाइश रहती है। इस बार नतीजों का फासला इतना बड़ा रहा कि किसी भी दिशा में सीमित क्रॉस-वोटिंग भी तस्वीर नहीं बदलती।
सी.पी. राधाकृष्णन तमिलनाडु से आने वाले बीजेपी के पुराने चेहरे और पूर्व सांसद हैं। इंडिया ब्लॉक ने बी. सुदर्शन रेड्डी को उतारकर चुनाव को प्रतिस्पर्धी बनाने की कोशिश की, पर संसदीय गणित और उपस्थिति ने एनडीए के पक्ष में साफ बहुमत दिखा दिया।

तीन दल क्यों बाहर रहे और असर क्या पड़ा
इस चुनाव की धुरी बना एक सवाल—तीन दलों ने वोटिंग से दूरी क्यों बनाई और उसका असर क्या पड़ा? सीधे असर के तौर पर वैध वोटों की संख्या घट गई, जिससे जीत का कोटा नीचे आ गया। जब कोटा नीचे आता है, बढ़त बनाए हुए उम्मीदवार के लिए रास्ता और आसान हो जाता है। 452 बनाम 300 की बड़ी बढ़त में यह असर और साफ दिखा।
ऐसे फैसलों के पीछे वजहें आम तौर पर तीन तरह की होती हैं: पहला, चल रहे राजनीतिक सौदेबाजी या केंद्र-राज्य समीकरण; दूसरा, आंतरिक एकजुटता की परीक्षा से बचना ताकि क्रॉस-वोटिंग की किरकिरी न हो; तीसरा, किसी नीति/विधायी मुद्दे पर प्रतीकात्मक विरोध। गुप्त मतदान वाले संवैधानिक चुनावों में पार्टियां कभी-कभी “न्यूट्रल” रहकर अपने तात्कालिक जोखिम कम करती हैं।
अब मान लें कि ये तीनों दल पूरी ताकत के साथ वोट करते और सभी वोट विपक्षी उम्मीदवार को जाते। तब कुल वैध वोट बढ़ते और जीत का कोटा भी ऊपर जाता। उदाहरण के लिए अगर वैध मत 752 से बढ़कर 780 के आसपास होते, तो कोटा लगभग 391 के करीब पहुंचता। फिर भी 452 पर खड़े उम्मीदवार की बढ़त सुरक्षित रहती। हां, अंतर कुछ नीचे आता और राजनीतिक संदेश थोड़ा अलग होता—पर सत्ता संतुलन नहीं बदलता।
यह भी याद रखना चाहिए कि इस चुनाव में पहली वरीयता संख्या ही निर्णायक रहती है। अगर पहली वरीयता में बहुमत स्पष्ट दिख जाए, तो बाद की ट्रांसफर गिनती की जरूरत नहीं पड़ती। इस बार ठीक वैसा ही हुआ, इसलिए “किसका गेम बना, किसका बिगड़ा” का सार यही है—अनुपस्थिति ने चुनौती को कमजोर किया, पर मूल परिणाम संसदीय संख्या-बल ने तय किया।
अब नजर आगे पर। उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं। वे कार्यवाही चलाते हैं, नियम लागू करते हैं, अव्यवस्था पर कार्रवाई कर सकते हैं और बहस को उत्पादक बनाने की जिम्मेदारी उठाते हैं। बराबरी की स्थिति में निर्णायक मत की संवैधानिक व्यवस्था भी है, हालांकि ऐसे मौके कम आते हैं। मौजूदा दौर में जब विवादित विधेयक, देर रात तक चलने वाले सत्र और बार-बार के टकराव सामान्य हो चुके हैं, नए सभापति की प्राथमिक परीक्षा होगी—सदन को समय पर चलाना, विपक्ष-सरकार में न्यूनतम सहमति बनवाना और लंबित विधेयकों को समयबद्ध तरीके से निपटाना।
राजनीतिक संकेत साफ हैं—एनडीए ने संसदीय गणित दिखा दिया है, इंडिया ब्लॉक को अपनी उपस्थिति और सामंजस्य पर फिर से काम करना होगा, और जो दल वोटिंग से बाहर रहे, उन्होंने अल्पावधि में जोखिम और टकराव से दूरी बनाकर भविष्य के सौदेबाजी के लिए अपने पत्ते संभालकर रखे हैं। आने वाले सत्रों में यही तीनों परतें—संख्या-बल, फ्लोर मैनेजमेंट और संवाद—राजनीति की असली परीक्षा होंगी। यहां से उपराष्ट्रपति की कुर्सी केवल औपचारिक नहीं, बल्कि सदन की संस्कृति गढ़ने का मंच बनती है। यही वजह है कि उपराष्ट्रपति चुनाव 2025 का परिणाम संसद के दोनों सदनों की कार्यशैली पर सीधा असर डालने वाला संकेत माना जा रहा है।